एक
जीवन भर
सजाती हैं
अपनों का संसार!
न जाने क्यों
बेटियां
लगती हैं भार !
दो
समय
असमय
रोप दी जाती हैं
अजानी माटी में
धान की पौध की तरह!
जलवायु
अनुकूल हो या
प्रतिकूल
संभलना,
खिलना और
बिखरना
यही इनकी नियति है!
बेटियां
न जाने क्यों
अभागी होती हैं।
तीन
पीढी दर पीढी
मां ने सिखाया
बेटियों को
सिर्फ सहना!
दुःख हो या सुख
खुश रहना
अभावों को भी
समझ लेना
अपना ’सौभाग्य’ !
मां !
तुमने
क्यों नहीं सिखाया?
बेटी
सच को सच
झूठ को झूठ कहे
दुःख में भी
सुख में भी
तटस्थ रहे ?
ससुराल और
मायके जैसे
दो सशक्त तटों के
संरक्षण में
उन्मुक्त नदी सी
बहती रहे?
संप्रति -
सहायक महाप्रबन्धक,
इंडियन ओवरसीज़ बैंक,
पटियाला
इंडियन ओवरसीज़ बैंक,
पटियाला
आपका आभार मित्र कि आपने मेरी इन कविताओं को the-Saharanpur.com पर स्थान दिया
उत्तर देंहटाएं